पोवारी साहित्य का इतिहास एवं विकास का जनांदोलन – इतिहासकार प्राचार्य ओ सी पटले

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पोवारी साहित्य का इतिहास एवं विकास का जनांदोलन – इतिहासकार प्राचार्य ओ सी पटले

♦️ किसी भी समुदाय या राष्ट्र का साहित्य यह उसका एक दैदीप्यमान अंग होता है।
♦️ २०१८ की पोवारी भाषिक एवं परिणामस्वरुप वर्तमान में घटित हो रही साहित्यिक क्रांति के कारण आज हम उस महत्वपूर्ण पड़ाव पर है, जहां खड़े रहकर पोवारी साहित्य के इतिहास को परिभाषित कर पाए।
♦️आज हम जिस पड़ाव पर खड़े है वहां से अपनी मातृभाषा के साहित्य के इतिहास को देखना और परिभाषित करना अत्यंत आवश्यक और महत्वपूर्ण है।
♦️ यदि सही समय पर पोवारी साहित्य के इतिहास को विश्वसनीय एवं प्रामाणिकता से परिभाषित किया गया तो हमारे भावी समाज को अपने साहित्यिक इतिहास की ओर देखने की उचित दृष्टिकोण प्राप्त होगा।
१. पोवारी भाषा का विकास
‌————————————– भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत है। प्राचीन भारतीय साहित्य साहित्य संस्कृत में है। महाभारत काल के पश्चात यहां प्राकृत एवं पाली भाषा अस्तित्व में आयी। मध्ययुग (९वीं से १८ वीं सदी) के प्रारंभिक काल में हिन्दी, मराठी, बंगाली, गुजराती आदि. अनेक भाषाओं का उदय हुआ ऐसा माना जाता है। इस आधार पर निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है, इसी काल में पोवारी भाषा भी विकसित हुई।
पोवारी भाषा का लोकसाहित्य काफी विकसित है। लेकिन इस भाषा को बोलने वालों की संख्या कम होने से तथा केवल एक विशेष जाति की भाषा होने से और आजादी के पश्चात सामाजिक संगठनों ने मातृभाषा की उपेक्षा करने के कारण काल-प्रवाह के विकसित नहीं हो पायी।
पोवारी भाषा सरल और लगभग हिन्दी जैसी है। हिन्दी बोलने -समझने वाले लोग पोवारी भाषा बहुत कुछ समझ लेते है। पोवारी बस्ती में रहनेवाले अन्य समुदाय के लोग भी साफ -सुथरी पोवारी बोलते है।
२. लोकसाहित्य की समृद्ध विरासत
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पोवारी लोकसाहित्य में विवाह गीत, प-हे के गाने, फुगड़ी के गाने, लावनी, झड़ती, कहावतें, मुहावरे ,कथा – कहानी आदि. का समावेश है।यह लोकसाहित्य अलिखित होने से कालप्रवाह में विलुप्त हो रहा है।
पोवारी लोककथाओं में राजा-रानी, साहसी राजकुमार, दिल्ली और चांदा के ठग
की कहानियां और दंतकथाओं का समावेश है। पोवार समाज में झांजू ( एक काव्यप्रकार) नामक एक काव्यप्रकार भी अस्तित्व में था। जिसमें राजा गोपीचंद – रानी मैनावती समान राजा-रानी की कथायें संगीत के साथ काव्यरुप में प्रस्तुत की जाती थी।
पोवार समाज में उन्नीस सौ पचास के दशक तक रात में कहानी, झांझू ,रामायण, आल्हा आदि. के आयोजन का प्रचलन था। मनोरंजन के साधन के रुप में दंढार का खूब प्रचलन था। अब दंढार का स्थान ड्रामा ने ले लिया है।
३. मातृभाषा के खिलाफ अप-प्रचार
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भारत में उन्नीसवीं सदी को सुधारों की
सदी के नाम से जाना जाता है। इसका प्रभाव पोवार समाज पर भी पड़ा। परिणामस्वरुप १९०५ में अखिल भारतीय क्षत्रिय पंवार महासभा नामक एक संस्था की स्थापना हुई। आज़ादी के पश्चात गोंदिया, बालाघाट, सिवनी जैसे नगरों में भी सामाजिक संगठन अस्तित्व में आये। सामाजिक सुधार और जन-जागरण के उद्देश्य से वार्षिक पत्रिका के प्रकाशन का प्रचलन लगभग १९८२भी शुरू हुआ।
आज़ादी के बाद सामाजिक संगठनों द्वारा वार्षिक पत्रिका के माध्यम से समाज प्रबोधन अवश्य शुरू हुआ, लेकिन इस प्रबोधन के लिए हिन्दी का प्रयोग किया गया। और यही कदम मातृभाषा पोवारी के लिए घातक साबित हुआ।
४. परस्पर विरोधी कार्य
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सामाजिक संगठनों ने न केवल मातृभाषा पोवारी को दरकिनार किया बल्कि समाज के कुछ कर्णधारों ने मातृभाषा पोवारी को कमजोर और हेंगली भाषा निरुपित करते हुए, उसे त्याग कर हिन्दी को अपनाने की पैरवी भी किया।
इस कृत्य के संबंध में प्रस्तुत लेखक का स्पष्ट अभिमत हैं कि आज़ादी के पश्चात पोवार समाज के कर्णधार एक और पोवारी संस्कृति बचाने की बातें करते थें और दूसरी ओर मातृभाषा के खिलाफ अप-प्रचार करते थे। इस परस्पर विरोधी आचरण के आलोक में यह बात खुलकर सामने आती है कि समाज के कर्णधारों को अन्य सब क्षेत्र के ज्ञान में महारथ हासिल रहा हो, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टिकोण का शाय़द उनमें अभाव था।
एक ओर सामाजिक एकता एवं संस्कृति के संरक्षण के प्रयास करना और दूसरी ओर मातृभाषा को त्यागने की बात करना अज्ञानता का लक्षण है। क्योंकि यह दोनों कार्य मातृभाषा के द्वारा ही संपन्न होते हैं। मातृभाषा संस्कृति की संवाहक है तथा वह समाज की पहचान तथा समाज में समता, ममता और एकता प्रस्थापित करने की शक्तिशाली माध्यम हैं। इसलिए मातृभाषा के संरक्षण – संवर्धन के बिना संस्कृति के संरक्षण अथवा सामाजिक एकता की उम्मीद करना यह केवल मृगजल से प्यास बुझाने की आशा के समान अज्ञानतापूर्ण अभिलाषा है।
५. संस्कृति और मातृभाषा: एक ही सिक्के के दो पहलू
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जनमानस को अपनी मातृभाषा, संस्कृति और पहचान प्रिय होती है और इसी में समाज का कल्याण भी निहित हैं। इसलिए हमें संस्कृति के संरक्षण और मातृभाषा त्यागने जैसे परस्पर विरोधी अज्ञानता पूर्ण विचारों का त्याग करके पूर्ण सामर्थ्य के साथ अपनी पहचान और एकता बचाने के उद्देश्य से मातृभाषा पोवारी के संरक्षण -संवर्धन एवं उन्नयन के कार्य में जूट जाना चाहिए। समाज की भलाई का यही विवेकपूर्ण विचार है।
६. पोवारी बचाओ का नारा
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आज़ादी के पहले पोवारी साहित्य अपवाद स्वरूप है। आज़ादी के बाद वार्षिक पत्रिकाओं में लेख और कविताएं हिन्दी में ही हुआ करती थी। पोवारी भाषा में मुश्किल से एखाद कविता और एखाद कथा देखने मिल जाती थी।
सन् १९८२ -२०१५ इस कालखंड में अॅड. मनराज पटेल (साकोली) और ‌जयपालसिंह पटले ने पोवारी साहित्य का काफी दिलचस्पी से सृजन किया। जयपालसिंह पटले ने ” पोवारी बचाओ” का नारा भी दिया।
पोवारी बचाओ नारे का उद्देश्य ठीक था। लेकिन नारे के साथ – साथ मातृभाषा का महत्व, उसके कार्य उसकी उपयोगिता, संस्कृति और समाज के अस्तित्व के लिए उसकी अनिवार्यता आदि. तत्वों के संबंध मे युवाशक्ति के पथप्रदर्शन का कार्य बिल्कुल नहीं किया गया। इस समय तक मातृभाषा के संबंध में हमारी युवाशक्ति में पर्याप्त सुझबुझ न होने से युवाशक्ति में किसी प्रकार का प्रेरक संकेत न जाते हुए अनजान में केवल यह संकेत अवश्य गया कि पोवार समुदाय के शिक्षित लोग मातृभाषा पोवारी के स्थान पर हिन्दी, मराठी अथवा अंग्रेजी का प्रयोग करते है। इसलिए भविष्य में मातृभाषा पोवारी के अस्तित्व के लिए खतरा है। इससे समाज में मातृभाषा के भविष्य संबंधी असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई है।
७. पोवारी भाषिक क्रांति (२०१८)
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समाज में मातृभाषा पोवारी के भवितव्य के संबंध में असमंजस की स्थिति को दूर करने के उद्देश्य से पोवारी भाषाविश्व नई क्रांति अभियान की शुरुआत २०१८ में “बोली पोवारी, लिखो पोवारी” इस प्रेरक उदघोष के साथ की की गई।
इस समय केवल उदघोष लगाने का कार्य नहीं किया गया बल्कि विपुल लेख, कविता और गीतों के माध्यम से युवाशक्ति के दिलों में निहित सुप्त प्रेम को जगाया गया मातृभाषा के महत्व, कार्य और उपयोगिता से अवगत कराया गया, उन्नत करने का मार्ग समझाया गया, बोली से भाषा बनाने का लक्ष्य सामने रखा गया और उद्देश्य प्राप्ति के लिए आवश्यक आत्मबल भी बढ़ाया गया। परिणामस्वरुप समाज में भाषिक चेतना, अस्मिता और स्वाभिमान विकसित हुआ और युवाशक्ति साहित्य सृजन के पथ पर पूर्ण उत्साह के साथ आगे बढ़ने लगी। तात्पर्य, क्रांति आश्चर्यजनक गति से सफल हुई।
८.पोवारी साहित्य को नया मोड़
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२०१८ की भाषिक क्रांति यह नये विचार और नये विचारों पर आधारित साहित्य के बल पर आयी है। इस क्रांति ने पोवार समुदाय में न केवल भाषिक चेतना जागृत की बल्कि पोवारी साहित्य की दिशाधारा को आमूलाग्र बदल दिया है और आज हमें ऐसे महत्वपूर्ण पड़ाव पर खड़ा कर दिया है कि हम पोवारी साहित्य के इतिहास को परिभाषित कर पाए।
९.पोवारी साहित्य के प्रमुख कालखंड
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पोवारी साहित्य के इतिहास को अध्ययन की सुविधा के लिए प्रमुख तीन कालखंड में विभाजित किया जा सकता है। यह तीन कालखंड निम्नलिखित हे –
९-१.स्वर्णिम कालखंड
( पुरातन काल से भारत की आज़ादी तक)
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पुरातन काल से भारतवर्ष की आज़ादी तक के कालखंड को पोवारी साहित्य का स्वर्णिम कालखंड कहा जा सकता है। क्योंकि इस प्रदीर्घ कालखंड में
पोवारी भाषा में विवाह गीत, प-हे के गाने,
हाने, लावनी, झड़ती,कथा -कहानी का भरपूर मात्रा में सृजन हुआ। यह सब साहित्य अलिखित लेकिन काव्य-कला की दृष्टि से उत्तम है।
९-२. अग्निपरीक्षा का कालखंड
( भारत की आज़ादी से २०१७तक)
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आज़ादी के पश्चात पोवार समुदाय में शिक्षा का खूब प्रचार -प्रसार हुआ। सुशिक्षित व्यक्तियों के बोलचाल में हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ा और इस सुशिक्षित समुदाय ने मातृभाषा पोवारी की निंदा करनी शुरू की।१९८२ से पोवारी के स्थान पर पवारी नाम प्रतिस्थापित करने का गलत कार्य प्रारंभ हुआ। पोवारी साहित्यिकों की लेखनी अपने मूल स्थान मालवा -राजस्थान के गुणगान में स्वयं को धन्य समझने लगी।
३. आधुनिक कालखंड (२०१८ से आगे…)
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आधुनिक युग डिजिटल युग है। युवाशक्ति एवं समाज का प्रबुद्ध वर्ग डिजिटल संचार साधनों से जुडा हुआ है।इसी बात को ध्यान में रखते हुए २०१८ की पोवारी भाषिक क्रांति ने डिजिटल संचार के माध्यम से पोवार समाज के फेसबुक एवं व्हाट्सएप समूहों में पोवारी भाषा का जबरदस्त प्रचार -प्रसार करना शुरू किया
भाषिक क्रांति अभियान के द्वारा मातृभाषा के संरक्षण -संवर्धन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए जो कार्य किए गये वें निम्नलिखित है – (१)युवाशक्ति को मातृभाषा पोवारी के कार्य, उपयोगिता, एवं महत्व से अवगत कराया गया।
(२) युवाशक्ति में मातृभाषा पोवारी के प्रति प्रेम, अस्मिता, स्वाभिमान एवं उसके उत्कर्ष की आकांक्षा जागृत की गयी।
(३) विभिन्न विषयों पर पोवारी साहित्य सृजन के लिए उन्हें प्रेरित किया गया।
(४) साहित्य सम्मेलन के आयोजन के लिए प्रेरित किया गया।
(५) मातृभाषा संरक्षण -संवर्धन एवं पोवारी साहित्य के विकास के व्यक्तिगत एवं सामाजिक लाभ अवगत कराये गये।
(६) मातृभाषा का संरक्षण – संवर्धन यह समाज के प्रबुद्ध वर्ग का नैतिक दायित्व है। अतः अपने इस दायित्व के निर्वाह हेतु आगे आने उसे प्रेरित किया गया।
पोवारी भाषिक क्रांति आश्चर्यजनक गति से सफल हुई। क्रांति की मुख्य फलश्रुति निम्नलिखित है –
(१) २०१८ के पूर्व भाषिक चेतना वैयक्तिक थी। भाषिक क्रांति के कारण समाज में सामूहिक भाषिक चेतना उत्पन्न हुई।
(२) पहले केवल ४-५ व्यक्ति पोवारी साहित्य का सृजन करते हुए दिखाई देते थे। अब पोवारी साहित्यिकों की संख्या लगभग १०० तक पहुंच गई है।
(३)२०१८ के पूर्व पोवारी के प्रचार-प्रसार के लिए कभी भी डिजिटल संचार माध्यम का उपयोग नहीं किया गया था। इसी वर्ष से पोवारी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए डिजिटल संचार माध्यम का उपयोग प्रारंभ हुआ।
(४) २०१८ के पूर्व पोवारी भाषा पर केवल दस- पंद्रह किताबें प्रकाशित हुई थी। २०१८ के पश्चात लगभग ५० किताबों का प्रकाशन हुआ है।अब किताबों की कुल संख्या लगभग ७० तक पहुंच गई है।
(५) २०१८. के पश्चात पोवारी भाषा में पोवारी भाषा संवर्धन: मौलिक सिद्धांत एवं व्यवहार, समाजोत्थान का सिद्धांत, राजा भोज को राजत्व तथा विविध विधाओं में साहित्य का ग्रंथ रुप में प्रकाशन हुआ है। झुंझुरका पोवारी बाल ई – पत्रिका के माध्यम से उत्तम बाल-साहित्य का प्रकाशन हो रहा है। यू- ट्यूब चैनल पर पोवारी गीत और पोवारी काॅमेडी व्हिडिओ का भरपूर मात्रा में प्रकाशन हो रहा है।
१०.उपसंहार
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भाषिक क्रांति को युवाशक्ति का स्वयंस्फूर्त सहयोग मिलने के कारण अत्यंत अल्पावधि में समाज में भाषिक प्रेम की ऐसी जबरदस्त आंधी आयी है कि पोवारी साहित्यिक अविरत पोवारी साहित्य का सृजन कर रहे है।
भाषिक प्रेम की आंधी के कारण पहले जो प्रबुद्ध वर्ग पोवारी बोलने में लज्जा का अनुभव कर रहा था, उस वर्ग के लिए स्वजनों के साथ मातृभाषा में बात करना गर्व का ‌विषय बन गया। सामाजिक संगठनों में पोवारी में भाषण देना अनिवार्य माना जाने लगा । पोवारी भाषा में पत्र -पत्रिकाएं प्रकाशित करने का चलन अस्तित्व में आया। प्रबुद्ध वर्ग ने मातृभाषा पोवारी को उन्नति के अत्युच्च शिखर तक पहुंचाने का मानस बना लिया है और समाज में मातृभाषा को विकसित करने के लिए बेहद उमंग, उत्साह एवं खुशी का माहौल है।
-ओ सी पटले
पोवारी भाषा समाज रिसर्च अकॅडमि, भारतवर्ष.
शुक्र २/२/२०२४.
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