पोवार समाज के विशेष संदर्भ में –
युवाओं में भाषिक एवं धार्मिक अस्मिता जागृत करना क्यों आवश्यक है ?
-इतिहासकार प्राचार्य ओ सी पटले
———————————————-
♦️ पोवार समाज पुरातन काल से ही सनातन हिन्दू धर्म का उपासक है।
♦️ सनातन हिन्दू धर्म पोवारी संस्कृति का मूल स्त्रोत है तथा पोवारी भाषा यह पोवारी संस्कृति की संवाहक है।
♦️ सनातन हिन्दू धर्म एवं मातृभाषा पोवारी से अलग पोवारी संस्कृति का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
१. प्रस्तावना
——————–
प्रत्येक समाज को अपनी संस्कृति प्रिय होती है और वह आपनी संस्कृति के संरक्षण संवर्धन के लिए सतत प्रयत्नशील भी रहता है। क्योंकि संस्कृति के उत्थान -पतन पर ही समाज का उत्थान -पतन निर्भर होता है।
वर्तमान पोवार समाज अपनी संस्कृति को लेकर चिंतित है। अतः पोवारी संस्कृति के बुनियादी तत्व विशद करना एवं पोवारी संस्कृति के संरक्षण -संवर्धन के लिए उचित सुझाव प्रस्तुत करना यह इस लेख का महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
२. सनातन धर्म एवं पोवारी संस्कृति
———————————————
सनातन हिन्दू धर्म यह पोवारी संस्कृति का प्रथम बुनियादी तत्व है। क्योंकि यह पोवारी संस्कृति का मूल स्त्रोत या उदगम स्थान है। सनातन हिन्दू धर्म एवं पोवारी संस्कृति का संबंध निम्नलिखित है-
२-१. सोलह संस्कार
—————————–
सनातन हिन्दू धर्म में गर्भाधान से लेकर तेरहवीं तक सोलह संस्कार अस्तित्व में है। पोवार समाज भी इन सोलह संस्कारों को मानता है। समाज में ये सभी संस्कार तो संपन्न नहीं किए जाते। लेकिन अन्नप्राशन संस्कार, विवाह संस्कार, गुरुदीक्षा संस्कार, विवाह संस्कार, अग्निसंस्कार, पिंडदान संस्कार आदि प्रमुख संस्कार पाये जाते हैं।
इससे स्पष्ट है सनातन हिन्दू धर्म ही पोवारी संस्कृति का मूल स्त्रोत है।
२-२. हिन्दू त्यौहार
————————-
सनातन हिन्दू धर्म में आषाढ़ी पूर्णिमा, जीवती, कृष्ण जन्माष्टमी, पोला, काजल तिज, नवरात्रि , दशहरा,संक्रांति, दीपावली, फाग, अख्खा तिज आदि. त्यौहार समाहित है। पोवार समाज में ये सब त्यौहार मनाये जाते है।
२-३. हिन्दू जीवन दर्शन पर निष्ठा
——————————————-
सनातन हिन्दू धर्म के वेद, उपनिषद, पुराण , रामायण, महाभारत , श्रीमद्भगवद्गीता आदि. सभी ग्रंथों के प्रति पोवार समाज की अनन्य निष्ठा है। पोवार समाज में व्रत, उपवास, तुलसी वृंदावन की पूजा, भागवत पुराण एवं अखंड रामायण पाठ का भी प्रचलन एवं विशेष महत्व है।
पोवार समाज हिन्दू पंचांग के अनुसार ही शुभ कार्य करता है।
२-४. प्रभु श्रीराम: प्रथम आराध्य
——————————————
प्रभु श्रीराम ही भारतीय संस्कृति की आत्मा है और पोवार समाज के प्रमुख आराध्य भी प्रभु श्रीराम है। इस दृष्टि से भी सनातन संस्कृति एवं पोवारी संस्कृति यह दोनों अभिन्न है। पोवार समाज के लोग अपनी संस्कृति को यद्यपि पोवारी संस्कृति के नाम से संबोधित करते हुए देखे जाते हैं तथापि पोवारी संस्कृति यह कोई अलग संस्कृति नहीं है। पोवारी संस्कृति यह सनातन संस्कृति का ही प्रतिबिम्ब है।
२-५.कुलदैवत “महादेव”
——————————–
सनातन हिन्दू संस्कृति में शिवजी को देवों के देव कहा गया है।भगवान शिवशंकर ही पोवार समाज के कुलदेवता है। पोवार समाज में घर के आंगन में महादेव का बोहला रखने की एवं महाशिवरात्रि को नंदी लेकर भावभक्ति के साथ महादेव की यात्रा को जाने की परंपरा पुरातन काल से ही पायी जाती है। पोवार समाज शक्ति का उपासक भी है एवं मां दुर्गा भवानी इस समाज की कुलदेवी हैं।
२-६. पोवार तीर्थ-स्थल ” सिहारपाठ”
———————————————-
वैनगंगा क्षेत्र में पोवार समाज की घनी आबादी है। इसी क्षेत्र में पोवार समाज द्वारा बैहर तहसील (जिला-बालाघाट)में स्थित सतपुड़ा पर्वत माला की सिहारपाठ नामक निसर्ग रम्य पहाड़ी पर १९१५ में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण किया गया है और इसे पोवार तीर्थ-स्थल के नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष रामनवमीं को यहां भव्य मेला लगता है।
२-७. पोवारी लोकसाहित्य
———————————-
पोवार समाज की मातृभाषा पोवारी है। पोवारी लोकसाहित्य में विवाह गीत, परहे के गीत, दरने – कांडने के समय के गीत, फुगड़ी गीत, लावनी, झड़ती, हाना आदि का समावेश है। पोवारी लोकसाहित्य में विवाह गीतों को महत्वपूर्ण स्थान है।
समाज में विवाह को एक संस्कार माना गया है। वर – वधू को राम एवं सीता के रुप में देखा जाता है। पोवारी भाषा के विवाह गीतों में राम, सीता,जानकी, लक्ष्मण, राजा दशरथ, राजा जनक, अयोध्या, राजकुंवर आदि. शब्द गूंथे हुए पाये जाते हैं। ये विवाह गीत इस बात की साक्षी देते है कि सनातन हिन्दू संस्कृति ही पोवारी संस्कृति की आत्मा है। पोवारी संस्कृति का सनातन संस्कृति से अलग कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
३.संस्कृति के बुनियादी तत्वों की उपेक्षा
————————————————
पोवारी संस्कृति के मातृभाषा पोवारी एवं सनातन हिन्दू धर्म ये दोनों बुनियादी तत्व है। इसलिए हमारे सामाजिक कार्यक्रमों में दोनों बुनियादी तत्वों को केंद्रीय स्थान प्राप्त होना चाहिए।
लेकिन पोवार समाज के कार्यक्रमों में उपर्युक्त दोनों तत्वों को उपेक्षित करके जब पोवारी संस्कृति के संरक्षण – संवर्धन करने के लिए आवाहन किया जाता है,तब यह कार्य “हवा में तीर चलाने की तरह निरर्थक” अथवा “वृक्ष की जड़ों को सिंचित न करते हुए उसकी डाली और पत्तों को सींचने जैसा ही अफलातून कार्य प्रतीत होता है।”
३-१.मातृभाषा की उपेक्षा के कारण
——————————————
भारत की आज़ादी के पश्चात लगभग सत्तर वर्षों तक हमारे समाज के कुछ तथाकथित कर्णधारों ने मातृभाषा पोवारी का उपहास किया एवं पोवार/पोवारी इन दोनों नामों के प्रति समाज में तिरस्कार का भाव उत्पन्न किया । उसीप्रकार पोवारी को व्यावसायिक दृष्टि से महत्व नहीं होने के कारण उसकी उपेक्षा का एक लंबा दौर चला। लेकिन २०१८ की पोवारी भाषिक क्रांति के कारण अब पोवार समाज में पर्याप्त भाषिक अस्मिता जागृत हो चुकी है। सामाजिक कार्यक्रमों में पोवारी भाषा पुनर्प्रतिष्ठित हो रही है।
३-२. हिन्दू धर्म की उपेक्षा के कारण
—————————————–
भारतवर्ष की आज़ादी के पश्चात देश में वामपंथी, धर्मनिरपेक्षतावादी, बहुजनवादी आदि अनेक विचारधाराएं अस्तित्व में आयी । इन विचारधारा के कुछ लोगों द्वारा सनातन हिन्दू धर्म के खिलाफ दुष्प्रचार किया गया। सनातन हिन्दूओं की धार्मिक अस्मिता नष्ट करने का भरपूर प्रयास किया गया। इसके पोवार समाज एवम् सामाजिक कार्यक्रमों पर जो अनिष्ट परिणाम हुए , वें निम्नलिखित है –
(१) कार्यक्रमों में सनातन संस्कृति की जय-जयकार करना दकियानुसी विचारधारा का प्रतीक माना जाने लगा। सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में न केवल आराध्य प्रभु श्रीराम, गणेश वंदना, एवं सरस्वती पूजन को बल्कि संपूर्ण सनातन हिन्दू धर्म को ही दरकिनार कर दिया गया ।
(२) सामाजिक कार्यक्रमों में सनातन हिन्दू धर्म का नाम सुनाई देना दुर्लभ हो गया । प्रत्येक वक्ता पोवारी संस्कृति का एक अलग अस्तित्व मानकर उसका गुणगान करते हुए या उसे बचाने के लिए आवाहन करता हुआ दिखाई देने लगा।
(३) कार्यक्रम में आमंत्रित कुछ राजनीतिक नेतागण सनातन हिन्दू धर्म के नाम से ही क्रोधित होने लगे। अपने भाषण के माध्यम से संपूर्ण कार्यक्रम को अपनी राजनीति के रंग में रंगने का कार्य करते हुए दिखाई देने लगे।
परिणामस्वरुप सामाजिक कार्यक्रमों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देश्य नष्ट हुआ । संस्कृति के संरक्षण -संवर्धन की दिशा में में सामाजिक कार्यक्रम विफल साबित हुये।
४. भाषिक एवं धार्मिक अस्मिता का महत्व
———————————————
पोवार समाज का हर समझदार व्यक्ति मानता है कि समाजोत्थान के लिए पोवारी संस्कृति का संरक्षण – संवर्धन अनिवार्य होता है। लेकिन यह सच है कि आज़ादी के पश्चात सत्तर वर्षों तक हम केवल पोवारी संस्कृति के जतन की बातें करते रहे और उसके लिए युवाशक्ति को आवाहन करते रहे है। लेकिन खेदजनक बात है कि हम पोवारी संस्कृति के बुनियादी तत्वों का तिरस्कार भी करते रहे।
उपर्युक्त लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि सनातन हिन्दू धर्म एवं मातृभाषा पोवारी से अलग पोवारी संस्कृति का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसलिए पोवारी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए नयी पीढ़ी में मातृभाषा पोवारी एवं सनातन हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम , अस्मिता एवं स्वाभिमान जागृत करना अनिवार्य है और यह समाज में अविरत चलने वाली यह एक प्रक्रिया है।
इससे पोवार समाज के संगठनों द्वारा आयोजित सामाजिक कार्यक्रमों को सही दिशा प्राप्त होगी , पोवारी संस्कृति का संरक्षण संवर्धन होगा और समाज का उज्ज्वल भविष्य भी साकार होगा।
-ओ सी पटले
समग्र पोवारी चेतना एवं सामूहिक क्रांति अभियान, भारतवर्ष.
रवि.२५/२/२०२४.
♦️

