♦️ जातिप्रथा भारत की वास्तविकता है। पोवार एक जाति संस्था है, किंतु इसे समुदाय अथवा समाज के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
♦️ जाति एक अंतर्विवाही समूह होता है। जिसकी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा, त्यौहार, धर्म, देवी-देवता, पूजा पद्धति, अनुष्ठान, खान-पान, जीवन दर्शन एवं जीवनशैली आदि में समानता होती है।
♦️ जाति के लोगों के बीच विविध विषयों में समानता होने के कारण अपनत्व का भाव होता है।
1.पोवार समाज का संरचनात्मक विश्लेषण
( Structural Analysis of the Powar community.)
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पोवार समुदाय के सामाजिक संरचना की प्रमुख तथ्य निम्नलिखित है –
1-1.छत्तीस क्षत्रिय कुलों का संघ
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पोवार समाज छत्तीस कुलों के क्षत्रियों का एक संघ है। इसलिए इस समाज को छत्तीस कुलीय पोवार के नाम से संबोधित किया जाता है।निवासी क्षेत्र के आधार पर इसे वैनगंगा अंचल के पोवार समुदाय के नाम से भी जाना जाता है।
पोवार समाज में बिसेन,टेंभरे, राहांगडाले,पटले,राणे,चौहान,गौतम,भगत, तुरकर, हरिण खेड़े, येड़े , क्षीरसागर, चौधरी, ठाकुर,पारधी, शरणागत, कटरे, सोनवाने, जैयतवार, पुंड, कोल्हे, परिहार, बघेले, बोपचे, रिनाईत, भैरम, हनवत, सहारे,अंबुले और भोयर यह तीस कुल ही अस्तित्व में है। पोवार धर्मोपदेश नामक पुस्तक, रसेल के ग्रंथ एवं ऐतिहासिक दस्तावेजों में पोवार समाज के छत्तीस कुल अंकित है। किंतु छः कुल रणवत ,राजहंस, राऊत, रणदिवा, फरीदाले, डाला यह अब अस्तित्व में नहीं है।
1-2.स्वतंत्र मातृभाषा की विरासत
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पोवार समाज की एक स्वतंत्र मातृभाषा है,जिसे पोवारी के नाम से जाना जाता है। मातृभाषा पोवारी के कारण समाज के सदस्यों में अपनेपन की भावना पायी जाती है। यह अपनेपन की भावना समाज में एकता निर्माण करके उसे संगठित करती है।
मातृभाषा पोवारी, पोवारी संस्कृति की संवाहक है। पोवार समाज के विवाह गीत, हाना, परहे के गाने,ओवी आदि लोकसाहित्य मातृभाषा पोवारी में है और पोवारी भाषा ही पोवारी संस्कृति की संवाहक है
1-3.सजातीय विवाह प्रथा का प्रचलन
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पोवार समाज में सगोत्र एवं अंतर्जातीय विवाह वर्जित है। समाज में निहित कुल एक दूसरे से वैवाहिक संबंध प्रस्थापित करते है। अन्य समाज से वैवाहिक संबंध को अंतर्जातीय विवाह संबोधित किया जाता है और इस प्रकार का विवाह करना वर्जित है। इसी विशेषता के कारण पोवार समाज एक स्वतंत्र जाति है।
1-4.समृद्ध संस्कृतिक विरासत
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पोवार समाज को विरासत में श्रेष्ठ सनातनी संस्कृति प्राप्त हुई है। समाज के सभी परिवारों में धार्मिक एवं सांस्कृतिक समानता पायी जाती है। इसी समानता के कारण संपूर्ण जाति के लोगों में परस्पर अपनापन पाया जाता है।
1-5.संस्कृति को सनातन धर्म
का अधिष्ठान
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पोवार समाज सनातन हिन्दू धर्म का उपासक है। सनातन धर्म ही पोवारी संस्कृति का मूलस्रोत है। इस समाज के प्रथम आराध्य प्रभु श्रीराम, कुलदेवता देवों के देव महादेव तथा कुलदेवी माता दुर्गा भवानी है। समाज की पताका भगवी है। रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीमद्भागवत ग्रंथ को परम् श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। समाज की एकता के लिए धार्मिक एवं सांस्कृतिक निष्ठा में समानता का होना आवश्यक है।
2. विशेष उल्लेखनीय आंतरिक समानताएं
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वैनगंगा अंचल के पोवार समाज अंतर्निहित कुछ उल्लेखनीय आंतरिक विशेषता निम्नलिखित है –
2-1.पोवार समाज के जिन घरों में शाम की आरती होती है, वहां “ॐ जय जगदीश हरे” यह आरती गाने का प्रचलन है। इस समाज में विशेष अवसरों पर भगवान सत्यनारायण की कथा कराने का परंपरा भी पायी जाती है।
2-2.पोवार समाज में दहेज प्रथा नहीं पायी जाती। नवरात्रि में नव कन्या भोजन का विशेष महत्व है। पोवार समाज के घरों में चवरी हुआ करती है,जो मिट्टी से बनी हुई और आयताकार होती है। विशेष पर्वो पर अपने देवी- देवता चवरी पर उतारें जातें है, उनकी पूजा की जाती है, चवरी पर पकवानों का नैवेद्य रखा जाता है और अंगार के निखारों पर नैवेद्य (कागुर, बिरानी) अर्पित किया जाता है।
2-3. पोवार समाज में कन्याओं को विशेष महत्व दिया जाता है। भाई , पिता और काका द्वारा कन्याओं के चरणस्पर्श किये जाते है। इस कारण बहन- भाई का रिश्ता मजबूत होता हैं और संपत्ति संबंधी विवाद की गुंजाइश समाप्त हो जाती है। अनेक कन्याएं पिता की संपत्ति में हिस्से की चाहत नहीं रखती।
2-4. समाज को भांजा- भांजी का तीर्थ – धाम माना जाता है। विशेष अवसरों पर बहुत श्रद्धापूर्वक भांजा- भांजी के चरण स्पर्श किए जाते है। भांजा – भांजी द्वारा मामा- मामी की झूठी थाली उठाने में पाप माना जाता है। इससे बच्चों में आत्मगौरव का भाव एवं ननिहाल के प्रति लगाव विकसित होता है।
2-5.भाई – भाई के जब हिस्से- बंटवारे होते हैं तब बड़े भाई को हक होता है कि वह सभी भाईयों के बराबरी के हिस्से तय करें। लेकिन हिस्सा चयन करते समय पहला हक छोटे को दिया जाता है। शेष हिस्सा बड़े भाई को दिया जाता है।इस परिपाटी में बड़े भाई ने छोटों के प्रति त्याग की भावना रखनी चाहिए,यह संस्कार निहित है।
3. समाज में एकत्व निर्माण करनेवाले तत्व
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समान भाषा,समान धर्म,समान संस्कृति, समान देवी -देवता, समान आराध्य,समान परंपराएं, समान रीति-रिवाज, समान अनुष्ठान, समान पूजा-पाठ,समान आचार -विचार, समान जीवन -दर्शन, समान जीवनशैली, आदि तत्वों के कारण ही समाज में अपनत्व का भाव उत्पन्न होता है और एकता प्रस्थापित होती है। इसलिए इन तत्वों को समाज में एकत्व निर्माण करनेवाले तत्व संबोधित किया जाता है। सामाजिक एकता के लिए समाज में इनमें से अधिकांश तत्वों की
मौजूदगी होना आवश्यक हैं।
पोवार समाज में विचरण करते हुए हम अनेक बार , समाज में एकता चाहिए ऐसा विधान अनेक महानुभावों की वाणी से सुनते है। लेकिन समाज में एकत्व निर्माण करनेवाले तत्व कौन- कौनसे है? इसपर समाज के कार्यक्रमों में अथवा पोवारी साहित्य में इस विषय पर किसी के द्वारा विचार प्रस्तुत करते हुए देखा नहीं गया है। इसी वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए, समग्र पोवारी क्रांति के वर्तमान दौर में इस प्रश्न का उत्तर खोजना प्रासंगिक हो गया है।
4. आज़ादी के पश्चात समाज में बिखराव की स्थिति
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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पोवार समाज की आंतरिक संस्कृति में समानता है। इसीलिए सदियों से पोवार समाज के अस्तित्व की धारा अखंड रुप से आगे प्रवाहित हो रही है। लेकिन आज़ादी के पश्चात व्यक्ति स्वतंत्रता वादी, धर्मनिरपेक्षतावादी, वामपंथी, बहुजनवादी विचारधारा तथा पाश्चात्यीकरण, आधुनिकीकरण की प्रवृत्ति के कारण समाज की आंतरिक संस्कृति में बिखराव की स्थिति उत्पन्न हुई है और समाज के सम्मुख एकता का संकट उत्पन्न हुआ है । परिणामस्वरुप वर्तमान पोवार समाज पर उसका सामाजिक ढांचा तहस नहस होने का संकट मंडरा रहा है । 5.सामाजिक संरचना मजबूत बनाने के उपाय ————————————————–
पोवार समाज की सामाजिक संरचना के उपरोक्त तथ्य अवगत हो जाने के पश्चात समझदार पाठकों को वर्तमान पोवार समाज में उत्पन्न बिखराव की स्थिति का निदान करने में सुविधा होगी। उसी के साथ- साथ बिखराव रोकने तथा सामाजिक ढांचे को सशक्त बनाने के जिन उपायों की सहजता से कल्पना आ सकती है, वें उपाय निम्नलिखित है –
5-1. भाषिक चेतना का विकास
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पोवार समाज को विरासत में मातृभाषा मिली है। पोवारी को पाठ्यक्रम में स्थान नहीं है तथा इसे व्यावसायिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। लेकिन पोवारी भाषा में लोकसाहित्य हैं और यह भाषा ही पोवारी संस्कृति और एकता की संवाहक है। अतः पोवारी भाषा का व्यावसायिक मूल्य शून्य होने के बावजूद भी यह भाषा सामाजिक एकता और सांस्कृतिक दृष्टी अत्यंत मूल्यवान है। इसलिए युवाशक्ति में भाषिक चेतना, प्रेम, अस्मिता, स्वाभिमान विकसित करने का प्रयास निरंतर होना चाहिए। दिशाहीन युवाशक्ति की उर्जा को मातृभाषा और पोवारी साहित्य को उन्नत करने की दिशा में मोड़ने से युवाशक्ति की उर्जा का सदुपयोग होगा, सामाजिक एकता को बल मिलेगा होने से समाज का वैचारिक उत्कर्ष भी होगा।
5-2.सामाजिक चेतना का विकास
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जाति का ऐतिहासिक नाम एक ही होता है और वह जाति के सदस्यों में एकता विकसित करता है। इस नाम के प्रति चेतना, प्रेम, अस्मिता, स्वाभिमान विकसित करने को ही समाजिक चेतना के नाम से संबोधित किया जाता है।उसी प्रकार सजातीय विवाह प्रथा ही जाति व्यवस्था की रीढ़ है, इसलिए युवाओं में सजातीय विवाह के प्रति चेतना, प्रेम, अस्मिता एवं स्वाभिमान विकसित करने के कार्य का भी सामाजिक चेतना में ही समावेश होता है।
अतः अपने जाति नाम को स्वाभिमान के साथ धारण करने के लिए युवाशक्ति को प्रेरित करना, उन्हें सजातीय विवाह के लाभों से अवगत कराना तथा समाज सेवियों को सजातीय विवाह जोड़ने के लिए मॅरेज ब्यूरो की स्थापना करने प्रोत्साहित करना आदि कार्य सामाजिक संगठनों द्वारा संपन्न किए जाने चाहिए।
5-3.सांस्कृतिक चेतना का विकास
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संस्कृति में त्यौहार, परंपराएं, श्रद्धा स्थान, प्रेरणा स्थान, नीति नियम , जीवन-मूल्य, देवी-देवता, धर्म ग्रंथ, जीवन दर्शन ,आदि तत्वों का समावेश होता है। समाज की संस्कृति हिन्दू धर्म पर अधिष्ठित होने के कारण संस्कारक्षम एवं श्रेष्ठ है। इस संस्कृति में नयी पीढ़ी पर अच्छे संस्कार करने का सामर्थ्य है। लेकिन अपने संस्कृति के संबंध में अज्ञान होने के कारण ही युवाशक्ति की धर्मनिष्ठता में बिखराव की स्थिति पायी जाती है। युवाओं की इस धर्म विरोधी मानसिकता को बदलने के लिये युवा पीढ़ी में अनमोल सांस्कृतिक विरासत के प्रति जागरुकता, चेतना, प्रेम, अस्मिता एवं स्वाभिमान विकसित करना आवश्यक है।
मानव जीवन में सुख- शांति के लिए केवल आर्थिक समृद्धि की नहीं, बल्कि संस्कारों की आवश्यकता होती है। अतः समाज की सुख -शांति -समृद्धि के लिए युवा पीढ़ी में सांस्कृतिक चेतना जगाना यह प्रबुद्ध जनों एवं सामाजिक संगठनों का परम् पावन दायित्व है।
5-4.धार्मिक चेतना का विकास
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सनातन हिन्दू धर्म प्राचीन एवं श्रेष्ठ धर्म है।पोवार समाज बहुत सौभाग्यशाली है कि उसे विरासत में सनातन हिन्दू धर्म मिला है।
युग नायक स्वामी विवेकानन्द ने “सनातन हिन्दू धर्म ही भारतवर्ष की प्राणशक्ति है।” इस सच्चाई को तथ्यों सहित समझाया है। सनातन हिन्दू धर्म ही पोवारी संस्कृति का मूलस्रोत होने के कारण विवेकानन्द जी का विचार पोवार समाज को भी पूर्णतया लागू होता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम पूर्ण आत्मविश्वासपूर्वक कह सकते है कि भारत की आज़ादी के पश्चात पोवार समाज की धार्मिक निष्ठा में जो बिखराव उत्पन्न हुआ है,वह समाज के अस्तित्व के लिए ख़तरनाक है । अतः पोवार समाज के प्रत्येक व्यक्ति में हिन्दू धर्म शास्त्र, हिन्दूओं के श्रद्धा स्थान एवं हिन्दू धर्म की स्वस्थ परंपराओं के प्रति प्रेम एवं स्वाभिमान जागृत करना वर्तमान समय की परम् आवश्यकता है।
सनातन हिन्दू धर्म सर्व-धर्म समभाव की नीति का समर्थक है । इसका अभिप्राय है कि हमें अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्मावलंबियों के धार्मिक अधिकार का सम्मान करना चाहिए। लेकिन अपने देवघर की चवरी फेंक देना, पूर्वजों एवं भगवान श्रीकृष्ण की पूजा का विरोध करना, पूजास्थल में पीर – फकीर की मूर्ति स्थापित करना , उन्हें अपने श्रद्धा-स्थान बना लेना , आदि कृत्य सर्वथा अनुचित तथा हिन्दू धर्म एवं पोवार समाज दोनों के अस्तित्व के लिए हानिप्रद है।
पोवार समाज के कुछ व्यक्ति अज्ञानतावश वैयक्तिक – धार्मिक आजादी के नाम पर हिन्दू धर्म विरोधी कृत्य करते हैं ऐसे व्यक्तियों का यह कृत्य समाज की एकता, एकरुपता एवं अपनत्व के भाव की दृष्टि से अत्यंत गंभीर चिंताजनक है। उनका यह कार्य समाज के सामाजिक -सांस्कृतिक- वैचारिक पतन की राह पर आगे बढ़ने के समान ही गंभीर चिंता का विषय है।
अतः पोवार समाज की युवाशक्ति में धार्मिक चेतना जागृत करके समाज एवं हिन्दू धर्म के बिखराव को रोकना सामाजिक संगठनों का बुनियादी दायित्व है
5-5.साहित्यिक चेतना का विकास
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पोवारी भाषा को उन्नत करने से पोवारी साहित्यिक , पत्रकार और प्रकाशक का उदय होगा और इनमें से अनेक व्यक्ति हिन्दी -मराठी साहित्य की ओर भी मुड़ेंगे। इससे एक बुद्धिमान समाज के रूप में समाज को नयी पहचान और प्रतिष्ठा भी प्राप्त होगी। अतः अच्छा समाज बनाने के उद्देश्य से युवाशक्ति में भाषिक चेतना, प्रेम, अस्मिता एवं स्वाभिमान विकसित करना बहुत महत्वपूर्ण है।
5-6.आध्यात्मिक चेतना का विकास
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सभी संजीव सृष्टि में सर्वशक्तिमान परम् पिता परमेश्वर का अंश है। सबको सृष्टि पर जीने का अधिकार है। इसलिए हमने सभी के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए।इस प्रकार की चेतना को आध्यात्मिक चेतना कहा जाता है। समाज की खुशहाली के लिए यह आध्यात्मिक चेतना समाज में विकसित करना अनिवार्य है।
5-7.राजनीतिक चेतना का विकास
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विविध राजनीतिक दलों के उद्देश्य एवं कार्य से अगवत होना तथा राष्ट्रीय एवं सनातन हिन्दू धर्म के शाश्वत हितों की दृष्टि कौन-से राजनीतिक दल की नीति सही है,यह सोचने – समझने के गुण को राजनीतिक चेतना के नाम से संबोधित किया जाना चाहिए। इस प्रकार की राजनीतिक चेतना सदस्यों में विकसित करना पोवार समाज एवं उसकी संस्कृति के संरक्षण -संवर्धन के लिए आवश्यक है और यह कार्य सामाजिक संगठनों तथा समाज के प्रबुद्ध वर्ग द्वारा किया जाना चाहिए।
6.हमारी वर्तमान स्थिति
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सामाजिक चिंतन के संबंध में हमारी वर्तमान स्थिति कैसी है? इसपर हम कभी-कभी सोचते है तो एक प्रसिद्ध किस्सा अवश्य याद आ जाता है। वह किस्सा है, हाथी और अंधों का! इसमें वर्णित हैं कि प्रत्येक व्यक्ति हाथी को छूता है और टटोलता है। इसमें जिस व्यक्ति के हाथ में जो अंग आ जाता है, उसी को संपूर्ण हाथी समझकर, हाथी कैसा है? इसका वह वर्णन करता है।
पोवार समाज के संबंध में हमारी स्थिति उपर्युक्त किस्से के समान ही है। लेकिन प्रस्तुत लेखक की मान्यता है कि पोवार समुदाय की सामाजिक संरचना को यदि हम अच्छी तरह समझ लें तो हम समाज में उत्पन्न समस्याओं का सहज निदान कर पायेंगे और समस्याओं के समाधान के लिए प्रभावी उपाय भी कर पायेंगे।
7.उपसंहार
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प्रत्येक समाज में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। लेकिन निःस्वार्थ भाव से समाज की ऐतिहासिक पार्श्वभूमी और समाज में निहित समस्याओं को समझ पाए, समस्याओं का निदान कर पाए, सही उपाय अमंल में लाने के लिए समाज की युवाशक्ति में नयी चेतना जागृत कर उसे समाजोत्थान के लिए प्रेरित कर पाए, ऐसे व्यक्तियों की कमी है। हम यदि मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ यह कार्य करने के लिए प्रयत्नशील हो जायेंगे तो समाज का उज्ज्वल भविष्य अवश्य साकार कर पायेंगे।
-इतिहासकार प्राचार्य ओ सी पटले
मंग.28/5/2024.
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