
परमार ( पंवार ) राजा भोज: वीरता, विद्वता और विरासत
चक्रवर्ती सम्राट राजा भोज भारतीय इतिहास के महान शासकों में से एक थे। वे परमार वंश के सबसे प्रतापी शासक थे, जिन्होंने अपनी वीरता, विद्वता और स्थापत्य कला से अमिट छाप छोड़ी। उनकी शासनकाल की उपलब्धियाँ केवल युद्ध विजय तक सीमित नहीं थीं, बल्कि उन्होंने भारतीय संस्कृति, शिक्षा, वास्तुकला और साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। मालवा, धार, भोजशाला, भोजपुर मंदिर और अन्य ऐतिहासिक निर्माण उनकी महानता के प्रमाण हैं।
आज भी राजा भोज के वंश के लोग जीवित हैं, जो धारानगरी के पंवार कहलाते हैं। कालांतर में, ये पंवार वंश के लोग नगरधन और वैनगंगा क्षेत्र में बस गए और वहाँ पंवार समाज के रूप में अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा। इस समाज में छत्तीस कुल है और वर्तमान में मुख्यतः मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ जिलों में सीमित रह गया है।
पंवार समाज की नगरधन और वैनगंगा क्षेत्र में बसाहट:
पंवारों ने नगरधन में बसने से पहले अपनी प्राचीन परंपराओं को संरक्षित रखते हुए अपने सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को विकसित किया। पंवार समाज की संस्कृति और इतिहास पर विस्तार से जानकारी स्व. लखाराम तुरकर जी द्वारा 1890 में लिखित पुस्तक “पंवार धर्मोपदेश” में मिलती है।उन्होंने इस पुस्तक में पंवार समाज से छत्तीस कुलों की पहचान बनाए रखने का आह्वान किया और कहा कि समाज का प्रत्येक कुल एक पवित्र धाम के समान है। हालाँकि, वैनगंगा क्षेत्र में वर्तमान में केवल इकतीस कुलों की स्थायी बसाहट पाई जाती है। संभवतः, कुछ कुल नगरधन से वापस अपने मूल क्षेत्रों में चले गए।पंवार समाज की ऐतिहासिक गणना और पहचान:
नगरधन और वैनगंगा के पंवारों का ऐतिहासिक क्रम
1. परमार या पंवार राजवंश की स्थापना (8वीं शताब्दी) – उपेन्द्र (कृष्णराज) ने मालवा में परमार वंश की नींव रखी।
2. राजा भोज का शासन (1010-1055 ई.) – परमार वंश के सबसे प्रतापी शासक, जिनकी राजधानी धार थी।
3. परमार वंश का पतन (1327 ई.) – तुगलक वंश द्वारा मालवा पर अधिकार, जिससे परमारों का शासन समाप्त हुआ। और पंवार पश्चिमी मालवा , राजपूताने की ओर गये ! वहासे वे बुदेलखंड पहुचे ! और फिर स्थानांतरित होकर बुदेलखंड , बघेलखंड की ओर गये !
4. नगरधन में पंवारों का आगमन – बुन्देलखण्ड होते हुए मालवा के पंवार क्षत्रिय नगरधन (विदर्भ) में १७वीं शताब्दी के अंत में आये !
5. वैनगंगा क्षेत्र में विस्तार (१८ वी शताब्दी) – नगरधन से आगे बढ़कर पंवारों ने वैनगंगा नदी के किनारे स्थायी बस्तियाँ बसाईं।
6. जातीय गणना (1876 ई.) – रिपोर्ट में पंवारों के 30 कुलों की स्थायी बसाहट का उल्लेख।
7. रसेल की पुस्तक (1916 ई.) – इसमें पंवारों के 36 कुलों और उनके आपसी विवाह परंपरा का उल्लेख।
8. 1876 की जातीय गणना में केंद्रीय प्रांत में पंवारों के तीस कुलों की स्थायी बसाहट का उल्लेख मिलता है।
9. यह भी स्पष्ट किया गया कि पंवार समाज की कोई शाखा नहीं है, जिसका अर्थ है कि मालवा के छत्तीस कुल पंवारों ने अपनी पहचान और परंपराओं को सहेज कर रखा है।
पंवार समाज: एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान
पंवार समाज ने वैनगंगा क्षेत्र में आकर अपनी संस्कृति और पहचान को बनाए रखा है। इसे पंवारों की वैनगंगा शाखा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यही मूल पंवार समाज है, जो इस क्षेत्र में आकर बसा। हालाँकि, मालवा-राजपूताना में इनके मूल कुल अब राजपूत संघ का हिस्सा बन गए हैं, लेकिन वैनगंगा क्षेत्र में बसने के कारण वे सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से अलग हो गए और एक विशिष्ट जातीय स्वरूप में विकसित हुए।आज, को पंवार समाज अपनी गौरवशाली विरासत और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से समाज के प्रबुद्ध वर्ग, सामाजिक संगठन और, अखिल भारतीय क्षत्रिय पंवार महासंघ भारत निरंतर प्रयासरत हैं।
पूर्वजो के 36 कुलो का पँवार/पोवार महासंघ पुनर्जीवित क्यों?
36 कुल पोवारो का क्षत्रिय महासंघ 1960 पहले अस्तित्व में था ।फिर 1960 के बाद भोयर नामक एक अन्य जाती का अतिक्रमण का दौर आया ।हमारे समाज पर कुछ लोगो द्वारा भारी विरोध के बावजूद भोयर विलनिकरण दिया गया ।हालांकि 90 प्रतिशत ” 36 कुलीन पँवार/पोवार” झूठ को अस्वीकार करते थे।60 साल बाद सत्य सामने आया दस्तावेजों में भोयर व पोवार जाती अलग होने के सारे सबूत मिले ।झूठ से भ्रमित लोग भोयर विलनिकरण का रागअलाप ही रहे थे ।तब सन 2020 में समाज को भोयरिकरण से बचाने अनगिनत लोग आगे आये और फिर अपने पहचान व मूल अस्तित्व को बचाने हेतु उदय हुआ अखिल भारतीय क्षत्रिय पोवार पंवार महासंघ का । जो पंवार समाज की अपनी गौरवशाली विरासत और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने में निरंतर प्रयासरत हैं।आइए जुड़े 36 कुल के पँवार क्षत्रिय महासंघ से ।और अगली सहस्त्राब्दी के लिए , भारत निर्माण , सनातन धर्म की रक्षा के लिए प्रचंड शक्ति का निर्माण करे ।निष्कर्ष: पंवार समाज का इतिहास राजा भोज की महान परंपरा से गहराई से जुड़ा हुआ है। नगरधन और वैनगंगा क्षेत्र में बसने के बावजूद, इस समाज ने अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को संरक्षित रखा है। छत्तीस कुलों की परंपरा, वीरता और संस्कृति का सम्मान आज भी इस समाज की सबसे बड़ी धरोहर है, जिसे सहेजना और अगली पीढ़ी तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है..
डॉ.प्रीति किशोर बिसेन ,अध्यक्ष, महिला मुख्य कार्यकारिणी छत्तीसगढ़ प्रदेश, अखिल भारतीय क्षत्रिय पंवार महासंघ

